आर्थिक आजादी के उभरते हुए कुछ सवाल Financial freedom

Financial freedom
आर्थिक आजादी के उभरते हुए कुछ सवाल Financial freedom
हिना आज़मी

हमारे राजनीतिक सिद्धांतकारो ने राजनीतिक आजादी और अधिकारों के प्रश्न पर काफी विस्तार से गौर किया, लेकिन आर्थिक आजादी से जुड़े मुद्दों पर इस के मुकाबले बहुत ही कम विचार किया गया है। स्वतंत्रता के बाद शुरुआती दौर में इस सवाल को बुनियादी तौर पर मार्क्सवादी-राज्यवादी नजरिए से देखा गया। इसके तहत राज्य को कमजोर  और असुरक्षित लोगों के एकमात्र “रक्षक” की भूमिका दे दी गई।

गैर सरकारी संगठनों और संस्थानों के बजाय नौकरशाही को बेइंतहा और मनमानी के अधिकार मिलते चले गए, जिस समय हमें आजादी मिली उस समय नौकरशाही की संरचना शहरी और ऊंची जाति के अंग्रेजी पढ़े-लिखे अभिजनों से मिलकर ही हुई थी। आजादी के बाद के दशको में भारत सरकार ने जो आर्थिक नीतियां अपनाई, उनका परिणाम यह निकला कि अर्थव्यवस्था का एक क्षेत्र दूसरे के  साथ होड में फस गया और अलग-अलग क्षेत्रों के भीतर परस्पर निर्भर हितों को भी एक-दूसरे का रास्ता काटना पड़ा।

Bureaucracy

इन हालात के कारण नौकरशाही को सत्ता की धुरी बने रहने का मौका मिलता रहा। उसने अपनी ताकत का इस्तेमाल हर समूह के जायज हितों की सुरक्षा करने के लिए नहीं किया, अगर वह ऐसा करती तो उसके जरिए विवादों को निपटाने का प्रभावी और निष्पक्ष तंत्र विकसित होता और हितों की होड़ सभी के लिए समान नियमों के प्रावधान के तहत होती, वजह इसके नौकरशाही विकास और पहल अकादमी रोकने वाले विकट ढांचे में बदलती चली गई।

एक खास वर्ग ने पूरे समाज पर वर्चस्व कायम कर लिया

राजनीति शास्त्र नौकरशाही की भूमिका का विश्लेषण व्यापार द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की रोशनी में करते रहे, लेकिन असलियत यह थी कि वह एक ऐसी सत्ता संरचना की तरह काम कर रही थी, जिसका चरित्र श्रेणीक्रम पर आधारित समाज व्यवस्था के अनुकूल था और उसके जरिए अभिजनों के एक खास वर्ग ने पूरे समाज पर वर्चस्व कायम कर लिया। इस प्रभुत्व का दुरुपयोग करके नौकरशाही ने समाज को खासी अवमानना का अनुपालन के लिए विवश किया और सभी से बड़े पैमाने पर रिश्वत मांगने का सिलसिला चलाया।

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नौकरशाही ने लाइसेंस पर छापा-राज स्थापित किया और फिर उसके ताकतवर कारकुनों की हथेली गर्म किए बिना, इस देश में किसी भी किस्म की आर्थिक कार्रवाई नामुमकिन हो गई , यहां तक कि इसके बिना भीख मांगना भी मुश्किल हो गया। आर्थिक सुधारों के समर्थन में कैसी भी अलंकारिक भाषा बोली जाए और उनका कितना भी जश्न मनाया जाए, देश के गरीबों के लिए यह लाइसेंस-परमिट राज आज भी उसी तरह कायम है, जिस तरह पहले था।

इसका एक स्पष्ट सूचकांक यह है कि पिछले 10-12 सालों में सरकारी अधिकारियों को गरीबों द्वारा दी गई रिश्वत की कम होने के बजाय और बढ़ गई है। गरीबों के हालात ही कुछ ऐसे हैं कि रोजी-रोटी चलाने के लिए उन्हें अक्सर कानून की सीमाओं को छूना पड़ता है। भारत में लाइसेंस-परमिट राज का समुचित सामाजिक ऐतिहासिक विश्लेषण होना अभी बाकी है।

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