Global democracy की अवधारणा पर विचार
Global democracy आज पूरा विश्व एक गांव जितना छोटा सिमट गया है, वह इसलिए क्योंकि सूचना के विश्वव्यापी फैला हुए जाल ने सारी दुनिया को सूचना क्रांति के तहत सिमटा कर छोटा कर दिया है, यही भूमंडलीकरण कहलाता है। भूमंडलीकरण के जहां सकारात्मक पहलू है। वहीं दूसरी तरफ इसके नकारात्मक पहलू भी है।
भूमंडलीकरण के नकारात्मक पहलू के खिलाफ संघर्ष आज भूमंडलीकृत शैली में ही मुमकिन है ,लेकिन क्या जिस तरह जी-7 के देश जापान और चीन भूमंडलीकरण के केंद्र बने हुए हैं, उसी तर्ज पर उसका विरोध करने वालों का भी कोई केंद्र होना चाहिए? क्या भूमंडलीकरण के तहत जिस ग्लोबल गवर्नेंस की बात की जा रही है उसका लोकतंत्रीकरण करने की कोई मुहिम चलाई जानी चाहिए? क्या कोई ऐसी विश्व संसद बन सकती है जिसमें नुमाइंदगी का सवाल वास्तव में लोकतंत्र के वसूलों के मुताबिक ही हल किया गया हो?
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क्या ऐसा कोई ग्लोबल राष्ट्र बन सकता है जो भूमंडलीकरण से जुड़े हुए अनिवार्य सांस्कृतिक, राजनीतिक, समीकरण के और इसकी दावेदारी के पक्ष में खड़ा हो सके? इसका मतलब है कि यह मुद्दा बहुत ही जटिल है। जिनमें कई अवधारणात्मक और पद्धति के सवाल शामिल है। धीरूभाई के अनुसार ग्लोबल फाइनेंस का मतलब आमतौर पर संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन वुड्स संस्थाओं जैसे राष्ट्रपति संगठनों को घटक बनाकर एक ऐसी शासन प्रणाली चलाना समझा जाता है, जिस पर किसी एक राष्ट्रीय, राज्य का नियंत्रण नहीं है। माना जाता है कि इस शासन के पास अभूतपूर्व वित्तीय और राजनीतिक शक्ति है।
Global democracy और ग्लोबल सिविल सोसाइटी की संरचना संभव
उसके पीछे अमेरिका की सामरिक ताकत है और इसे यूरोपीय देशों तथा जापान, चीन जैसे देशों का समर्थन हासिल है, लेकिन इससे शासन प्रणाली के पास ना तो कोई वादा है और ना ही इसका चरित्र लोकतांत्रिक है। यह तो ताकत के दम पर अपेक्षाकृत कमजोर और पूरी तरह से शक्तिहीन राष्ट्र राज्यों पर अपनी चौधराहट थोप रही है। क्या ऐसी ग्लोबल फाइनेंस के साथ कोई ग्लोबल डेमोक्रेसी और ग्लोबल सिविल सोसाइटी की संरचना संभव है?
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इस सवाल के साथ जूझते हुए उन्होंने प्रश्न उठाया कि क्या इस ग्लोबल संरचना पर भी उत्तरा उदारवादिता प्रतिनिधि लोकतंत्र के सिद्धांत लागू किए जा सकते हैं और इस तरीके से इसका लोकतंत्रीकरण हो सकता है ? इसको पूरा करने में कोई उलझन है। पहले और सबसे बड़ी उलझन तो यह है कि बातचीत गवर्नेंस की हो रही है पर लोकतंत्र का जो मॉडल लागू किया जा रहा है वह राष्ट्र, राज्य को केंद्र बनाकर विकसित किया गया था।
बिना व्यापकता सभ्यता के लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं
उत्तरा लोकतंत्र जनता की इच्छा से संयुक्त होकर चलते हैं , भागीदारी से उन्हें वैधता मिलती है, और राष्ट्र के विचार के आसपास बनी पहचान से संपन्न नागरिकता का आधार बनती है। राष्ट्र की सरहदो से वंचित ग्लोबल डेमोक्रेसी की संरचना में भागीदारी का उसूल कैसे लागू किया जाएगा? और उसे बेहतर कहां से मिलेगी क्योंकि बिना व्यापकता सभ्यता के लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं होता।
यह दिक्कत हल करने के लिए एक सुझाव उभर कर आया था कि ग्लोबल गवर्नेंस का कोई एक केंद्र ना हो, बल्कि यह केंद्रीय हो और सभी केंद्र दाएं से बाएं निश्चित रूप से एक दूसरे से जुड़े रहे स्थानीय से लेकर भूमंडलीय स्तर तक लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को लगातार चलाया जाए।