क्या आप जानते है विदेशो में कैसे शुरू हुआ भारतीय कपड़े का युग Indian cloth
Indian cloth भारत सोने की चिड़िया कहलाता था क्योकि इसके पास हर संसाधन हुआ करते थे। अंग्रेजो के समय में यह कपास की खेती भारतीयों द्वारा होती थी, जिसे ब्रिटिश शासन ने यह से कच्चा माल ले जाकर बहार बेचना शुरू किया जिससे यहाँ के कारीगरों का काम ठप्प हो गया। इसके साथ ही अंग्रेजो ने एक और अजेंडा रचा यहाँ की भूमि को नुकसान करने के लिए नील की खेती करवानी शुरू की। खैर चलिये बताते है उस वक्त का मंजर क्या था –
मशीन उद्योगों के युग से पहले अंतरराष्ट्रीय कपड़ा बाजार (Indian cloth) में भारत के देश में और श्रुति उत्पादों का ही दबदबा रहता था। बहुत सारे देशों में मोटा कपास पैदा होता था, लेकिन भारत में पैदा होने वाला कपास महीन किस्म का था। आर्मी नियन और फारसी सौदागर, पंजाब से अफगानिस्तान, पूर्वी फारस और मध्य एशिया के रास्ते यहां की चीजें लेकर जाते थे। यहां के बने महीन कपड़ों के थान ऊंटों की पीठ पर लादकर पश्चिमोत्तर सीमा से पहाड़ी दर्रो और रेगिस्तान के पार ले जाए जाते थे।
बंदरगाहों से फलता-फूलता समुद्री व्यापार चलता था
मुख्य पूर्व औपनिवेशिक बंदरगाहों से फलता-फूलता समुद्री व्यापार चलता था। गुजरात के तट पर स्थित सूरत बंदरगाह के जरिए भारत खाडी और लाल सागर के बंदरगाहों से जुड़ा हुआ था। कोरोमंडल तत्पर मछलीपट्टनम और बंगाल में हुगली के माध्यम से भी दक्षिण पूर्वी एशियाई बंदरगाहों के साथ खूब व्यापार चलता था। निर्यात व्यापार के इस नेटवर्क में बहुत सारे भारतीय व्यापारी और बैंकर सक्रिय थे जो उत्पादन में पैसा लगाते थे, चीजों को लेकर जाते थे और निर्यातकों को पहुंचाते थे। माल भेजने वाले आपूर्ति सौदागर के जरिए बंदरगाह नगर देश के भीतरी इलाकों से जुड़े हुए थे।
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यह सौदागर बुनकरों को भेज देते थे। बुनकरों से तैयार कपड़ा खरीदते थे और उसे बंदरगाह तक पहुंचाते थे। बंदरगाह पर बड़े जहाज मालिक और निर्यात व्यापारियों के दलाल कीमत पर मोल भाव करते थे और आपूर्ति सौदागरों से माल खरीद लेते थे। 1750 के दशक तक भारतीय सौदागरों के नियंत्रण वाला यह नेटवर्क टूटने लगा था। यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ती जा रही थी।
सूरत और हुगली दोनों पुराने बंदरगाह कमजोर पड़ गए
पहले उन्होंने स्थानीय दरबारों से कई तरह की रियायते हासिल की और उसके बाद उन्होंने व्यापार पर हिस्सेदारी अधिकार प्राप्त कर लिए| इससे सूरत और हुगली दोनों पुराने बंदरगाह कमजोर पड़ गए। इन बंदरगाहों से होने वाले निर्यात में नाटकीय कमी आ गई। पहले जिस कर्जे से व्यापार चलता था ,वह खत्म होने लगा। धीरे-धीरे स्थानीय बनकर दिवालिया हो गए। 17 वी सदी के आखिरी सालों में सूरत बंदरगाह से होने वाले व्यापार का कुल मूल्य 1.6 करोड़ रुपए था। 1740 के दशक तक यह गिरकर केवल 3000000 रुपए रह गया था।
सूरत बाहुत ही कमजोर पड़ रहा था और मुंबई और कोलकाता की स्थिति सुधर रही थी। पुराने बंदरगाहों की जगह नए बंदरगाहों का बढ़ता महत्व औपनिवेशिक सत्ता की बढ़ती ताकत का संकेत था| नए बंदरगाहों के जरिए होने वाला व्यापार यूरोपीय कंपनियों के नियंत्रण में था और यूरोपीय जहाजों के जरिए होता था। तभी से हमारा पूरे विश्व में भारत का सूती विख्यात है।