जितनी चादर उतने पैर फैलाने चाहिए Jitni chadar ho utne paon phelao
Jitni chadar ho utne paon phelao यह कहावत हमने अक्सर सुनी है कि “जितनी चादर उतने ही पैर फैलाने चाहिए” । यह बात हमारी आज की कहानी से सही साबित होती है। सीताराम नाम का एक क्लर्क एक शहर में रहता था। वह बहुत ही सरल स्वभाव का था, लेकिन उसकी पत्नी बहुत महत्वकांक्षी थी, जो हमेशा कुछ न कुछ मांगती रहती थी, उसका नाम सुशीला था। सुशीला भोग-विलास की जिंदगी जीना चाहती थी और दिखावा बहुत करती थी।
एक बार सीताराम को किसी मंत्री के बेटे की शादी का निमंत्रण आता है। सुशीला देखकर खुश हो जाती है, लेकिन उसे याद आता है कि उसने बहुत समय से ड्रेस नहीं ली। वह पति से बोलती है _ “अरे! मंत्री के बेटे की शादी है तो उन्हीं के लेवल का बनकर जाना पड़ेगा और मेरे पास तो कुछ अच्छा पहनने के लिए भी नहीं है। क्लर्क उसे समझता है – जो है वही पहन लो भगवान! यह सुनकर गुस्से से लाल हुई पत्नी, उससे बात नहीं करती है।
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सुशीला अपनी एक सहेली से हार ले आती है
पत्नी की खुशी के लिए सीताराम जितने पैसे होते हैं, सभी को मिलाकर उसके लिए प्यारी और महंगी ड्रेस लाता है। वह खुश हो जाती है , लेकिन वह कहती है “मेरे पास ज्वेलरी भी नहीं है”। क्लर्क के पास पैसे नहीं बचे थे, सुशीला अपनी एक सहेली से हार ले आती है। शादी में सुशीला खूब चमककर जाती है, लोग उसकी तारीफ करते हैं।
शादी में सुशीला नाचती है, मस्ती करती है। सुशीला घर आ कर देखती है कि उसके गले में हार नहीं है, वे दोनों हार ढूंढते हैं, फिर हार न मिलने पर वे दोनों सुनार के पास जाकर वैसा ही हार पता करते हैं। जब उन्हें पता चलता है की हार की कीमत क्या है ? तो वह चौक जाते हैं , क्योंकि उसकी कीमत 3000000 थी। क्लर्क बहुत गरीब था , उसकी जोड़ी गयी पूंजी इसके 30 % भी नहीं थी।
सुशीला सहेली से कहती है की हार टूट गया, वह मरम्मत करा कर दे देगी। वह दोनों बहुत मेहनत कर के, भूखे रहकर, पाई-पाई जोड़ता है। सुशीला को रोज यही एहसास होता है कि काश मैं ऐसा न करती, मेरे पास जितना था, मैं उतने से ही खुश रहती, उस वक्त किसी का हार न लेती, तो हमारी यह हालत नहीं होती।
कई महीने बीत जाते हैं , दोनों जोड़े गए पैसों से हार खरीद कर सुशीला की सहेली को देने जाते हैं। सुशीला सहेली से सब बातें बताती है , तो सहेली हंसकर बोलती है :- “पागल तूने पहले क्यों नहीं बताया वह हर हीरो का नहीं था आर्टिफिशियल था” । सुशीला को समझ आ जाता है कि जितनी चादर उतने पैर फैलाने चाहिए (Jitni chadar ho utne paon phelao)।