वीरेन्द्र सिंह परिहार
मोदी सरकार द्वारा आठ नवम्बर से एक हजार एवं 500 रुपये पर लागू नोटबंदी की अवधि 30 दिसम्बर को समाप्त हो चुकी है। नोटबंदी के विरोध में जब विरोधी दलों ने तमाम तरह की कटु आलोचना करना शुरू कर दिया और सड़को पर उतरने लगे, तब प्रधानमंत्री मोदी ने जनता से कहा कि मुझे इसके लिये 30 दिसम्बर तक का समय दीजिये। इसके बाद भी यदि असपफलता मिलती है तो चाहे जिस चैराहे में मर्जी हो तो वहाॅ सजा दीजियेगा। इसका मतलब यह हुआ कि यह कदम कापफी सोच-विचार के बाद पूरे विश्वास के साथ उठाया गया था। कहने वाले जो चाहे जो कहे- आप जैसी पार्टियाॅ भले मोदी को चैराहे पर पफाॅसी पर लटका रही हों, लेकिन जिसे देश का जनमत या टी.एच. ग्रीन के शब्दों में श्सामान्य इच्छाश् कहा जाता है, उसके अनुसार तो मोदी नोटबन्दी की भीषण और भयावह परीक्षा में पास हुए हैं। सभी जनमत सर्वे, स्थानीय निकायों के चुनाव तो यही कहते है। हकीकत यही है कि नोट बन्दी के चलते जिस तरह से लोग परेशान हुए, ऐसी हालत में यदि लोगों को यह भरोसा न होता कि यह कदम देश की बेहतरी के लिए है तो वह सड़कों में आ जाते। दो जनवरी को लखनऊ में नरेन्द्र मोदी की रिकार्ड तोड़ रैली के बाद यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि नोट बन्दी के चलते मोदी की लोकप्रियता का ग्रापफ घटा नहीं, अपितु बढ़ा ही है। नोटबन्दी के विरोधियों का नोटबन्दी भी असपफलता के संबंध में सबसे बडा तर्क यह है कि एक हजार और 500 के जारी 16 लाख 44 हजार करोड़ नोटों में से 14 लाख करोड़ नोट बैंको में वापस आ गए।
इस तरह से मात्र एक लाख 44 हजार करोड़ के ही नोट वापस नहीं आए। यद्यपि ऐसा कहने वाले यह भी कह रहे थे कि 30 दिसंबर तक ये नोट भी बैंकों में आ जायेंगे, पर ये नोट नहीं आए। अब विरोधी भले नोटबन्दी को असफल बताए पर असलियत यही कि इस तरह से आठ प्रतिशत नोट बैंकों में वापस नहीं आये और वह व्यर्थ हो गये। ऐसा माना जाता था कि 20 प्रतिशत नोट कालाबाजारी में कार्यरत हैं या कि प्रचलन में नहीं है। ऐसी स्थिति में आठ प्रतिशत नोट भी एक झटके में अर्थव्यवस्था से बाहर हो गये तो यह एक बड़ी उपलब्धि है। दूसरी बड़ी बात यह है कि रिजर्व बैंक के अनुसार एक हजार के जारी नोटों में दो तिहाई एवं 500 के जारी नोटों में एक तिहाई कभी भी बैंकिंग सिस्टम में वापस नहीं आए। मोदी सरकार के इस कदम के चलते उन्हें बैंकिंग सिस्टम में आना पड़ा। कहने का तात्पर्य यह कि ज्यादातर नोट अब सरकार की जानकारी में है, सरकार के एकाउण्ट में है इस तरह से काले धन का एक बड़ा हिस्सा जानकारी में आ गया है। अब सरकार विरोधी भले इसे इस रूप में प्रचारित करें कि काले धन वालों ने अपना धन सपफेद कर लिया, पर हकीकत यही है कि अब इस सफेद हुए धन से सरकार को अपना आयकर मिलेगा, देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी और सरकार विकास कार्यों तथा जनकल्याण के कार्यों में ज्यादा खर्च कर सकेगी। जैसा कि प्रधानमंत्री ने 31 दिसंबर को बहुत सारी योजनाओं की घोषणा भी की। जहाॅ तक यह कहा जा रहा है कि मात्र आठ प्रतिशत नोट ही वापस नहीं आए, वह पूरा सच नहीं है। आयकर विभाग ने अभी तक 3600 करोड़ रुपये का काला धन और बहुत सा सोना जब्त किया है। ऐसे सभी राशियाॅ जो संदिग्ध हैं और बैंकों में जमा की गई हैं, सरकार के निशाने पर हैं। आयकर विभाग ने 10 लाख रुपये से ज्यादा जमा करने वाले 225 लोंगो को नोटिस भेजकर पूछा है कि ये रुपये कहाॅ से आये। इसके अलावा भी जिन बैंक खातों में अनाप-शनाप रुपये जमा हुए उनकी भी जाॅच जारी है। ऐसा कार्य करने में सहयोग करने वाले बैंक कर्मियों पर कठोर कार्यवाही की गई है और आगे भी की जा रही है।
कहने का आशय यह है कि यदि 8 प्रतिशत नोट वापस नहीं आए तो करीब 8 प्रतिशत काला धन बैंकों के माध्यम से और पकड़ में आयेगा। इस तरह से यदि 16 प्रतिशत काला धन अर्थव्यवस्था के प्रचलन के बाहर कर दिया गया तो इस राष्ट्र जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि मानना चाहिए। ऐसा कहा जा सकता है कि मात्र आठ प्रतिशत काला धन ही सपफेद किया जा सका। हालांकि, यह भी यह उस भ्रष्ट व्यवस्था के चलते है जो सरकार को विरासत में मिला है। ऐसा माना जाता है कि इस नोट बन्दी के कदम के चलते एक लाख करोड़ रुपये तक राजस्व की वृद्धि होगी। अभी तक जो सवा करोड़ लोग आयकर के दायरे में थे उनकी संख्या तीन लाख करोड़ तक बढ जायेगी। विरोध करने वाले चाहे किसानों के नाम पर कितना भी रोना रोएं, पर सच्चाई यह है कि किसानों की बोनी इस वर्ष 6 प्रतिशत ज्यादा बढ गई। जहाॅ तक कुछ सब्जियों के उचित दाम न मिलने का सवाल है तो यह नोटबन्दी से जुड़ा प्रश्न न होकर ज्यादा उत्पादन से जुड़ा मुद्दा है जो अमूमन प्रत्येक वर्ष देखने को मिलता है। जैसा कि वित्तमंत्री अरुण जेटली पफरमाते हैं, नोटबन्दी के बाद 14 प्रतिशत ज्यादा टैक्स सरकारी खजाने में जमा हुआ। आलोचकों का कहना है नोटबन्दी के चलते बड़ी संख्या में तिहाडी मजदूरों का रोजगार छिन गया, वह पूरा सच नहीं है। तत्कालिक रूप से इसमें अवसर से इंकार नहीं किया जा सकता, पर क्रमशः दिहाड़ी मजदूर काम पर लौटने लगे हैं। छोटे व्यापारियों की बिक्री भले प्रभावित हुई हो पर अब सबकुछ पटरी पर आ रहा है। जमीनों और मकानों की कीमतों में कापफी गिरावट के आसार हैं। बैंको और एटीएम मशीनों की लम्बी कतारे अब छोटी हो गई है। कुल मिलाकर विराधी चाहे जितना चिल्लाये कि बैंकों और एटीएम की कतारे छोटी नहीं हो रही है पर यह बात वास्तविकता से दूर है। जहाॅ तक एटीएम में रुपये की कमी का सवाल है वहाॅ भी बहुत ही अपवाद स्वरूप ऐसा देखने को मिलता है, अलवत्ता 500 रुपये की कमी जरूर अखरने वाली है। जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी कहते है कि 1988 में बेनामी हस्तान्तरण कानून बना पर उसे नोटीपफाई नहीं किया गया, यानी कि लागू नहीं किया गया। इससे पूर्व के सत्ता धारियों की नीयत एवं दृढता पर बड़ा प्रश्न-चिन्ह खड़ा होता है। पर अब मोदी सरकार बेनामी सम्पत्तियों के विरूद्ध युद्ध स्तर पर कदम उठाने जा रही है। निःसन्देह देश के नागरिकों को यह पूरी तरह भरोसा एवं विश्वास हो चला है कि मोदी भ्रष्टाचार से मुक्त देश खड़ा करना चाहते हैं।
अब जब मोदी सरकार चाहती है कि देश कैशलेस बने और नगदी का इस्तेमाल कम-से-कम हो, तो इसके विरोध में भी तरह-तरह का प्रचार किया जाता है। यह आरोप लगाया जाता है कि नोटबन्दी के चलते यह लोगों का ध्यान भटकाने का प्रयास है। सायबर अपराधों का हौआ खड़ा किया जाता है तो अधिक संख्या में लोंगों के अशिक्षित होने की बात की जाती है। वस्तुतः जब कैशलेस होने की बात कही जाती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि मोदी सरकार कैश को बिल्कुल चलने ही नहीं देगी। जहाॅ ऐसी बाध्यता है वहाॅ कैश का प्रचलन रहेगा, पर अधिक से अधिक कैशलेस व्यवस्था हो तो इससे पारदर्शिता रहेगी, बहुत सारे अनावश्यक खर्चों और झंझटों से मुक्ति मिलेगी। बड़ी बात यह है कि व्यक्ति के सामने भ्रष्ट होने के कम से कम अवसर रहेंगे। बहुत से लोंगों का कहना है कि मोदी सरकार लोगों के अन्तःवस्त्र तक जानकारी रखना चाहती है और इस तरह से लोगों की प्राइवेसी पर हमला कर रही है। पर ऐसे लोगों को यह पता होना चाहिए कि जब अन्तःवस्त्रों की आड़ में सोने व दूसरी चीजों की तस्करी होती हो तो राष्टहित में ऐसे कदम एकदम से उचित कहे जा सकते हैं। गोपनीयता और प्राइवेसी के नाम पर अपराधों को तो स्वीकार नहीं किया जा सकता। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नोटबन्दी को लेकर कहते हैं कि इससे नौकरियों के अवसर समाप्त होंगे, जबकि उनका शासन तो घोटालों का पर्याय ही था।
आकड़ें बताते हैं कि एन.डी.ए. शासन के वर्ष 1998 से 2004 के मध्य 6 करोड़ नौकरियों का सृजन हुआ जबकि यू.पी.ए. के 10 वर्षों के शासन में मात्र 27 लाख नौकरियों का सृजन हुआ। यू.पी.ए. शासन में व्यापार घाटा 100 करोड़ था जबकि एन.डी.ए शासन में 20 अरब डालर सरप्लस था। सच्चाई यह है कि मनमोहन सिंह के दौर में मुद्रा स्पफीति-दर, विकास-दर से तीन गुना ज्यादा थी। हकीकत यही है कि उस दौर में जमीनों के भाव बहुत ज्यादा बढ़े, क्योंकि उस समय के नोट पफर्जी और समानान्तर अर्थव्यवस्था में सहायक थे। वस्तुतः नोटबन्दी का लक्ष्य यही था कि पफर्जी विकास और समानान्तर अर्थव्यवस्था की कमर टूटे-जिसमें सपफलता मिलती दिख रही है। वस्तुतः नोटबन्दी ईमानदार और साफ-सुथरी किस्म की व्यवस्था की दिशा में एक बड़ा कदम है। आगे, मिर्जा गालिब के शब्दों में यह कहा जा सकता है – श् आगे-आगे देखिए होता है क्या ?