हृदयनारायण दीक्षित
इतिहास की मधुशाला विराट है। करोड़ों पूर्वजों का जीवन रस है इस मधुशाला में। साधारण गप्पबाजी का अपना मजा है। मित्रों के साथ यह मजा और भी रससिक्त करता है। इससे आत्मीयता बढ़ती है। आत्मीयता का रस और भी गाढ़ा हो जाता है। मेरे अनुभव में ऐसे आनंद का कोई विकल्प नहीं। गप्प की शुरूवात का इतिहास नहीं मिलता। कहते हैं कि इतिहास में रस नहीं होता। इतिहास रूखा होता है। सो ज्यादातर लोग इतिहास में रूचि नहीं लेते लेकिन मैं इतिहासप्रिय हूं। वेद पुराण और रामायण महाभारत अपने ढंग के रसपूर्ण इतिहास हैं। विश्व इतिहास के अन्य ग्रंथ काव्य नहीं हैं लेकिन मैं उनमें भी रस पाता हूं। मेरे लिए इतिहास का अध्ययन पूर्वजों के साथ गप्प लड़ाने का अवसर होता है। तब मैं अकबर के साथ होता हूं। उसके साथ बीरबल होते हैं। मैं स्वयं को ताजा अनुभव करता हूं। अकबर के नौरत्न बातें कर रहे हैं। आधुनिक संचार साधन नहीं। अकबर भारत के वृहदाकार भूखण्ड पर शासन करता है। मैं उसकी महफिल में हूं। इतिहास की किताब का पन्ना उलट पुलट जाता है। दारा शिकोह उपनिषदों के ज्ञान पर मोहित हैं। वह उनका अनुवाद करा रहा है। मैं उसके साथ बैठा हूं। उसकी ही महफिल में। पुष्यमित्र शुंग के प्रासाद में हूं।
यहां पतंजलि से भेंट होती है। चन्द्रगुप्त मौर्य से मिलने की अनुभूति रम्य है। यहां कौटिल्य भी मिलते हैं। इतिहास की बैठक रम्य है। नितांत स्वैच्छिक। जिसके साथ चाहूं, बैठूं, गप्प करूं। इसी मजे में प्रायः नींद नहीं आती। इतिहास की मधुशाला में बैठे पूर्वज और हम उनका व्यक्तित्व रस पीने पिलाने वाले साकी। ऐसे में कैसे आए नींद। राम इतिहास हैं और श्रीकृष्ण भी। रामायण के इतिहास का रस और भी गाढ़ा। थोड़ी देर राम के साथ बैठे, रामरस पिये। सरयू के तट पर घूमे। महाभारत में आए तो श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर भीष्म के साथ बैठ गये। ऋग्वेद के इतिहास की बैठक और भी लहालोट करती है। विश्वामित्र सूर्य के तेजस् की ओर निहार कर रहे हैं, सूर्य की किरणें उनके अन्तस् में प्रवेश कर रही हैं। तेजस्, अन्तस् के मिथुन से उगते छन्दस् देखता हूं। मैं 6 हजार बरस की उम्र का अरूण तरूण युवक हो जाता हूं। वशिष्ठ सुगंधिम् पुष्टि वर्द्धन न्न्यम्बकष् की स्तुति कर रहे हैं। यह उपवेशन आ“लादकारी है। हे देव! मुझे मेरे इस जीवन से पके फल जैसा ही मुक्त करो। मैं विश्वामित्र, वशिष्ठ, वामदेव आदि पूर्वजों के साथ हो जाता हूं – इतिहास की पोथी पढ़ते हुए। अथर्वा को पृथ्वी सूक्त गाते हुए सुनता हूं। हे पृथ्वी माता! लेटते बैठते करवट लेते आपको कष्ट हुआ है। क्षमा करना हे पृथ्वी माता। सरस्वती नदी का दर्शन करता हूं। यह नदीतमा है हमारे पूर्वजों की। इतिहास की। नदी नाद सुनता हूं। इतिहास घटित सत्य है। भविष्य अनिश्चित है। अनिश्चित के प्रति सुनिश्चित धारणा बेकार है। इतिहास के साथ रमना वर्तमान का परिष्कार करना है। हम अतीत का विस्तार हैं, अतीत के बोझ से लदे दबे नहीं। अतीत से समद्ध हैं हम सब। ज्ञान, प्रज्ञान, अनुभूति, प्रतीति, गल्ती, भूलचूक और दिक्भ्रम सहित करोड़ो अनुभवों का हिरण्यकोष है इतिहास। हमारे देश का भूगोल भी इतिहास के कारण बार-बार बदला है। इतिहास और समय जुड़वां पुत्र जान पड़ते हैं। जब समय नहीं था, तब इतिहास भी नहीं था। गति समय की माता है।
गति नहीं, तो न समय और न ही इतिहास। इतिहास के जन्म की मुहूर्त पता करना कठिन काम है। इसके लिए समय का इतिहास खोजना होगा और इसके पहले गति के जन्म का। कपिल के सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति सदा से है। इसमें तीन गुण हैं। इस के तीन गुणों की साम्यावस्था भंग हुई तो सृष्टि उगी। साम्य अवस्था भंग का क्षण, मुहूर्त पता करने का काम अभी अधूरा है। यह मुहूर्त इतिहास के अंक में ही है। स्टीफेन हाकिंग्स की किताब सिर्फ हिस्ट्री आॅफ टाइमश् में महत्वपूर्ण बाते हंै पर उनसे किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। वे आशावादी हैं, उन्होंने आशा व्यक्त की है कि भविष्य का विज्ञान समय की सत्ता का अन्वेषण करेगा। विश्व इतिहास ऐसे तमाम प्रयासों से भरापूरा है। ऋग्वेद के एक कवि ऋषि हैं – परमेष्टिन। नासदीय सूक्त में उन्हीं के मंत्र हैं। उनकी जिज्ञासा है कि सबसे पहले था क्या? कौन जानता है कि सृष्टि कहां से आई? ऊंचे आकाशों में बैठा सृष्टि का अध्यक्ष भी अपना आदि अन्त जानता है कि नहीं जानता? आदि, इत्यादि इतिहास के भाग हैं, करोड़ांे वस्तुओं और प्राणियों का अंत इतिहास है। अंत तो भी अंत नहीं होता। पूर्वजों ने इसे अनंत बताया है। इतिहास के विवरण में अनंत कथाएं हैं। वे शब्द या वाक्य भर नहीं हैं और न ही सामान्य सूचनाएं। कोई भी घटना स्वतंत्र नहीं होती। हरेक घटना का कारण होता है। कारण भी अकारण नहीं होता। इतिहास की गतिशीलता में करोड़ों कारण होते हैं, वे अपना काम करते हैं। कार्य कारण की निरंतरता को झांकने जानने के लिए इतिहास के अलावा कोई विकल्प नहीं। हो चुकी सारी घटनाएं अतीत हैं। लेकिन अतीत को व्यतीत नहीं कहा जा सकता।
किसी भी घटना से सम्बंधित कारण की पूरी ऊर्जा का व्यय नहीं होता। ऊर्जा अव्यय है भी। घटना से शेष बची ऊर्जा सक्रिय रहती है और घटना से पैदा ऊर्जा भी इतिहास गढ़ने में सक्रिय रहती है। सृष्टि की निरंतरता बनी रहती है। इतिहास का आकार बढ़ता जाता है। यूरोपीय इतिहास दृष्टि में युद्धों के विवरण ज्यादा हैं। भारतीय इतिहास स्मरण में संस्कृति और सदाचार की गरिमा है। प्रकृति में प्राणियों के जन्म और विकास के समय से ही यौन और युद्ध की प्रवृत्ति है। यौन और यद्ध जिजीवीषा के ही विस्तार हैं। यौन से जनन प्रजनन और युद्ध से आत्मरक्षा। मनुष्य ने युद्ध को आत्मरक्षा की स्वाभाविक इच्छा के विपरीत भूमि संपदा अर्जन का भी उपकरण बनाया है। मनुष्य ने अनेक संस्थाएं गढ़ी हैं, समूह, समाज और राजव्यवस्थाएं सहित अन्य तमाम संगठन भी लेकिन युद्ध से बचने की कोई संस्था नहीं है। इतिहास में भयंकर रक्तपात हैं। महाभारत का रक्तपात भयावह है।
भीष्म पर्व का दार्शनिक खण्ड गीता है। बेशक इस छोटे से खण्ड में विश्व दर्शन की मनोरम प्रतिभा है लेकिन इसका उपयोग युद्धविरत मनोदशा वाले अर्जुन को युद्धरत बनाने के लिए किया गया है। गीता का पहला श्लोक अंधे राजा धृतराष्ट्र का कथन है। इसमें ष्समवेता युयुत्सवःष् शब्द ध्यान देने योग्य है। इसका अर्थ है युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए लोग। इससे बुरी इच्छा क्या हो सकती है? महाविद्वान, शास्त्रज्ञाता युद्ध की इच्छा से एकत्रित होते हैं। लेकिन इतिहास साक्षी है। यौन और युद्ध इच्छा के कारण संसार की बड़ी क्षति हुई है। विज्ञान की आधुनिक उपलब्धियों ने इन दोनों अभिलाषाओं के तमाम विध्वंसक उपकरण दिये हैं। दुनिया काममय युद्ध पिपासु हो रही है। इतिहास की शरण में ही विवेक का पुनरोदय संभव है। इतिहास की पोथियों के शब्दों वाक्यों से नहीं। इतिहास के पात्रों से जीवंत संवाद करते हुए ही। सम्वाद करना चाहिए – नैपोलियन से, सिंकदर और अकबर आदि से। शिवाजी राणा प्रताप से। शेक्सपियर, शेली आदि से और बहुधा वैदिक पूर्वजों से। गांधी से संवाद बहुत जरूरी है। इतिहास के रत्नकोष में हजारों प्रतिभाएं हैं। इनसे जुड़ने में ही स्वयं का बोध संभव है। हमारे स्व-स्वयं के निर्माण में इतिहास की ही भूमिका है।