सारे मीडिया संस्थान क्यों कर रहे हैं Media trial
हिना आज़मी
इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की वृद्धि के साथ ही मीडिया ट्रायल (Media trial) की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। इसका प्रभाव प्रिंट मीडिया पर भी पड़ा है। इसकी शुरुआत तो आपराधिक घटनाओं की तथ्यपरक रिपोर्टिंग से हुई किंतु अब इसका तेवर चिंता का विषय बनता जा रहा है। एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में खबरों को सनसनीखेज बनाया जाता है।
उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर समाज के सामने इस तरह पेश किया जाता है कि उनके दर्शकों या पाठकों की संख्या में वृद्धि हो परिणाम यह होता है कि अभियुक्त अदालत द्वारा दोषी करार दिए जाने से पहले ही समाज की निगाह में अपराधी साबित हो जाता है, और यदि वह अदालत के ससम्मान बड़ी हो जाए ,तब भी समाज के निगाहों में वह सदैव के लिए अपराधी बन जाता है।
इससे मीडिया का व्यापार भले बढ़ जाए, किंतु यह सब कुछ कानूनी नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों का उल्लंघन है तथा मीडिया की साख पर इसका दूरगामी असर पड़ सकता है। मीडिया ट्रायल कानूनी तौर पर न्यायालय अवमानना की परिधि में आता है ,क्योंकि यह अदालत से बाहर प्रचार तंत्र के माध्यम से अदालत कार्य में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति वाला है। यह न्याय की हत्या करने जाता है तथा न्यायिक प्रक्रिया के अनुपालन के बगैर किसी के पक्ष में खिलाफ फैसला सुना दिया जाता है।
भारत में Media trial के कुछ परिणाम सामने आने लगे हैं
यह मीडिया के दीर्घकालिक हितों के विरुद्ध है क्योंकि इसके शिकार लोगों का मीडिया की निष्पक्षता पर से भरोसा उठ जाता है। शिकार पक्ष कारों का मीडिया के संबंध में अन्याय बोध इसलिए और बढ़ भी जाता है क्योंकि उन्हें यह जानकारी होने लगी है कि यह सब कुछ लौकिक लाभ के लिए किया जाता है| भारत में मीडिया ट्रायल के कुछ परिणाम सामने आने लगे हैं तथा न्यायालय सहित समाज के अलग-अलग हिस्से से प्रतिक्रिया आने लगी है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने देश से संबंधित कोलकाता की एक अदालत में लंबित मुकदमे में जमानत की सुनवाई करते हुए मीडिया ट्रायल की बढ़ती प्रवृत्ति पर क्षोभ व्यक्त किया। इसमें पीड़ित पक्ष के परिवार के लोगों का साक्षात्कार मीडिया में प्रसारित किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे न्यायिक प्रक्रिया में दखल अंदाजी मानते हुए प्रकाशक संपादक तथा पत्रकार को कड़ी फटकार लगाते हुए मीडिया को आगाह किया कि वे ऐसी प्रवृत्ति से बाज आए।
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