देहरादून । नववर्ष के प्रथम दिवस रविवार होने पर दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा प्रत्येक सप्ताह आयोजित किए जाने वाले रविवारीय सत्संग-प्रवचनों और भजन संर्कीतन के अन्र्तगत आज विशाल स्तर पर कार्यक्रम आयोजित हुआ। उपस्थित भक्त श्रद्धालुगणों को नववर्ष की शुभकामनाएं देते हुए वक्ताओं द्वारा मानव मन और भक्ति मार्ग के संबंध में विस्तार पूर्वक उद्बोधन दिए गए। मनुष्य के मन को उसके बंधन और मोक्ष दोनों का ही एकमात्र आधार बताते हुए सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी सुभाषा भारती जी ने बताया कि सामान्य रूप से मानव, मन रूपी रिमोट के द्वारा कंट्रोल हुआ करता है। अनेक विचारों और भावनाओं का भण्डार ही मन है। मन की गति सर्वाधिक तीव्र है, क्षण भर में ही यह लाखों-करोड़ों मील की यात्रा तय कर लिया करता है। महापुरूष समझाते हैं कि यह वेगवान मन ही मनुष्य के मोक्ष का भी कारण है और यही मन उसे बंधनों में बंाधने का भी काम किया करता है। मोक्ष के लिए इसकी दिशा सकारात्मक और बंधन के लिए इसकी दिशा नकारात्मक बताई गई है। अनियंत्रित मन मनुष्य को पतन की गहराईयों में घकेलने का काम करता है। मन एक शांत बहती हुई नदी की तरह है। जब तक नदी दो किनारों की मर्यादा का पालन करते हुए बहती है तो उन्नत दिशा की ओर प्रस्थान करते हुए अपने मार्ग में आने वाली वसुन्धरा को हरा-भरा बनाती हुए चलती है। यही नदी जब किनारों की मर्यादा का अतिक्रमण करने लगती है तो विध्वंस को ही जन्म दिया करती है।
महापुरूषों ने जहां एक ओर मन की दशा को दर्शाया है वहीं दूसरी ओर इस मन को सद्गति प्रदान करने का अमोघ उपाय भी बताया है। वे कहते हैं कि मन रूपी मदमस्त हाथी को वश में करने के लिए ज्ञान रूपी अंकुश की आवश्यकता पड़ती है। इस मन को साधने का एकमात्र उपाय केवल पूर्ण ब्रहम्निष्ठ सद्गुरू के ‘ब्रह्म्ज्ञान’ मे निहित है। साध्वी जी ने कहा कि संत के पास मानव मन की हर समस्या का समाधान हुआ करता है, आवश्यकता इस बात की है कि पूर्ण समर्पण और दृढ़ विश्वास के साथ उनकी शरण को प्राप्त किया जाए। मनुष्य सारे संसार को यदि जीत भी ले परन्तु मन पर विजय प्राप्त न हो सके तो यह उसकी पराजय ही होगी। उन्होंने सिकंदर का हवाला देते हुए कहा कि स्वयं को विश्व विजयी कहने वाला सिकंदर भी भारत आकर उस संत के चरणों में नतमस्तक हो गया जिसने उसे विश्वविजयी सिकंदर की बजाए हारा हुआ सिकंदर कह दिया। जिसने अपने मन पर विजय पताका फहरा दी वास्तव में वही विजयी है। संसार की समस्त विजय इस महाविजय के समक्ष गौण हैं। कहा भी गया- मन जीते जग जीत।
नववर्ष की शुभप्रभात पर आयोजित सत्संग कार्यक्रम का शुभारम्भ भावभीने भजनों को प्रस्तुत करते हुए किया गया। मंचासीन संगीतज्ञों ने अनेक भजन पुष्प ईश्वर के चरणों में अर्पित करते हुए संगत को भाव विभोर कर दिया। ‘‘जप ले प्यारे शाम-सवेरे, नित माला हरि नाम की………’’, ‘‘शरण पड़े हम प्रभु जी तेरे, कर दो दूर अंधेरे……..’’, ‘‘चरणों में सद्गुरू के बहती है, प्रेम सुधा की धारा………’’, ‘‘मेरा दिल तो दिवाना हो गया आशु बाबा तेरा……..’’ तथा ‘‘कान्हा-कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार……..’’ इत्यादि भजनों ने खूब समां बंाधा।
भजनों की विस्तृत विवेचना करते हुए मंच का संचालन साध्वी जाह्नवी भारती जी के द्वारा किया गया।
साध्वी सुभाषा भारती जी ने भक्ति के मार्ग को विशेषातिविशेष मार्ग बताते हुए कहा कि इस मार्ग पर शूरवीर चला करते हैं। महापुरूषों ने इसे खण्डे की धार (तलवार की पैनी धार) कहा है। इस पर कोई विरला ही चलने का साहस किया करता है। जो इस पर गुरू के सटीक मार्ग दर्शन में चलने का प्रयास करता है मंज़िल उसी के समक्ष आकर खड़ी हो जाती है। भक्तों के इतिहास पर दृष्टिपात किया जाए तो दृष्टिगोचर होता है कि भक्तों ने भक्ति के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। भक्ति एक आंतरिक युद्ध है। अंर्तजगत में विषय भोगों और क्रोध-लोभ के साथ-साथ मोह और अंहकार रूपी बलिष्ठ शत्रुओं का तामसी साम्राज्य व्याप्त है, इनसे भीषण युद्ध करते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति अर्थात भगवत् प्राप्ति ही मनुष्य की जीत सुनिश्चित किया करती है। इस युद्ध में सद्गुरू प्रदत्त महाअस्त्र केवल ब्रहम्ज्ञान है जो शत्रुओं का संहार करने में पूर्णतः सक्षम ब्रहमास्त्र है। भक्त के संबंध में कहा गया-
जननी जने तो भक्त जन, या दाता या सूर
या पिफर जननी बांझ रहे, व्यर्थ गंवाए नूर
अंत में विदुषी जी ने कहा कि साल आते हैं, चले जाते हैं परन्तु इंसान के झमेले कभी समाप्त नहीं होते। साल दर साल इन झमेलों में इज़ाफा ही होता जाता है और मनुष्य इनसे पार पाने में ही अपना समूचा जीवन निकाल दिया करता है और अंततः इस नश्वर संसार से खाली हाथ कूच कर जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि नववर्ष की शुरूआत अपने मानव जीवन के वास्वविक लक्ष्य के पति जागरूक होने के संकल्प के साथ की जाए। संत की शरणागत् िही मानव मन की गुत्थी को सुलझा सकती है, उसे उसके लक्ष्य की प्राप्ति करवा सकती है। सावधानी इस बात की है कि गुरू शास्त्र-सम्मत हो और ईश्वर को दिखाने की, उनकी प्राप्ति करवा देने की क्षमा रखते हों। कोई छदम् व्यक्ति गुरू के रूप में न मिल जाए जो मनुष्य की श्रद्धा को लूट ले जाए और अपनी स्वार्थसिद्धि करके उसे ठगा सा अधर में छोड़ दे। संत किसी साधारण वेषभूषा का नाम नहीं है, संत तो मनुष्य का जीवन पूर्णतः बदल देने वाली शक्ति का नाम है। शास्त्र सच्चे संत के ही संबंध में एैसा कहता है-
संत कहाना कठिन है, जैसे पेड़ खजूर
चढ़े तो चखे प्रेम रस, गिरे तो चकनाचूर
प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।