आधी आबादी में किस कदर राजनीतिक चेतना जागी है : शाहिद नक़वी

political consciousness
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शाहिद नक़वी

आधी आबादी में किस कदर राजनीतिक चेतना ( political consciousness ) जागी है कि पांच राज्यों में चुनाव नतीजों के बाद देश में एक बार फिर राजनीति में महिलाओं की सक्रियता सुर्खियां बनी हुई हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो कहा जा रहा है कि महिलाएं गेम चेंजर साबित हुई हैं। इसके पहले कभी नहीं देखा गया कि राजनीतिक दलों का चुनावी घोषणापत्र महिलाओं को केंद्र में रख कर बनाया गया हो।पिछले 25 सालों से संसद एवं विधानसभाओं में महिला भागीदारी एक-तिहाई करने का बिल मजबूर हो कर सरकार को पांच राज्यों में चुनाव के एलान से पहले पास करना पड़ा।

भले ही महिलाओं को इसका सीधा लाभ मिलने में अभी वक्त है।लेकिन ये महिलाओं की ताकत का परिणाम है कि उसे सभी राजनीतिक दलों को एक राय हो कर पारित करना पड़ा।बदलती हुई दुनिया के अनुसार उन्होंने अपने कौशल क्षमता में विस्तार किया।महिलाओं में नए आत्मविश्वास का संचार हुआ है।उनकी अपने-आपके प्रति छवि सुधरी है,वे अपनी ही निगाहों में ऊँची उठी हैं।समाज में महिला संबंधी मुद्दों पर विशेष बल दिया जाने लगा है, महिलाओं के साथ होनेवाले अत्याचार, बल-प्रयोग आदि के विरोध की जागरूकता बढ़ी है, बालिका शिक्षा को बल मिला है।

आजाद भारत की राजनीति में नंदिनी सत्पथी, मोहसिना किदवई, गिरिजा व्यास, सुषमा स्वराज, मायावती, राजमाता विजया सिंधिया, वसुंधरा राजे, शीला दीक्षित, ममता बनर्जी, रेणुका चौधरी, सोनिया गांधी, मीरा कुमार, मार्गेट अल्वा, प्रतिभा पाटिल, स्मृति ईरानी आदि ने सक्रियता दिखाई है।

इंदिरा गांधी ने तो 16 वर्ष तक प्रधानमंत्री के रूप में देश का नेतृत्व किया है।लेकिन इसके बावजूद महिलाओं की राजनीतिक हैसियत के हिसाब से भारत के इतिहास में आधुनिक काल ही अधिक महत्त्वपूर्ण है।सबसे बड़ा उदाहरण भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु हैं, जो आदिवासी समाज से आती हैं। सच में ये वह दौर है जब महिलाओं को आगे बढ़ने के बाद पुरूषों के सहारे की जरूरत नहीं है।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी का आधारभूत परिवर्तन तो ढ़ाई दशक पहले राजीव गांधी के प्रयासों से हो गया था।लेकिन उसके चमकदार परिणाम अब मिल रहें हैं।ये भी सत्य है कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में अभी भी महिलाओं में अपने स्तर पर सोचने और निर्णय लेने की प्रवृत्ति कम विकसित हुई है जो हमारी चुनौती है।

सच ये भी है कि राजनीति में महिला भागीदारी बढ़ाने की दृष्टि से दुनियाभर में भारत का महत्त्वपूर्ण स्थान है।पिछले एक दशक में महिलाओं की चुनावी भागीदारी में बड़ा बदलाव आया है और वह सबसे बड़ा वोट बैंक बनी हैं। महिलाओं की अस्मिता, आर्थिक और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों ने राजनीति को प्रभावित किया। लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकी।महिलाओं से जुड़े दूसरे मसले भी राजनीति के फोकस में आए।

फिर ये राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में रखे गए। महिलाओं को प्रोत्साहित करने के पीएम नरेंद्र मोदी ने पहल की और उनकी पार्टी ने उज्जवला योजना सहित तमाम मसलों में महिला वोटरों को लुभाने की कोशिश की।2019 आम चुनाव में बीजेपी को मिली बड़ी जीत में महिला वोटरों का बड़ा योगदान रहा।

आम चुनाव के बाद आए आंकड़ों में यह बात साबित हुई कि पीएम मोदी की अगुआई में भाजपा को दूसरे दलों के मुकाबले महिलाओं के 6 से 8 फीसदी अधिक वोट मिले,जो जीत के अंतर को बड़ा करने में बड़ा फैक्टर बना। तब से लेकर अब तक विपक्षी दलों ने भी अलग-अलग राज्यों में इस तबके को फोकस में रखा।

इसमें सबसे कॉमन फैक्टर बना महिलाओं को हर महीने एक तय राशि देने का एलान। कर्नाटक में कांग्रेस ने चुनाव से पहले इसकी घोषणा की थी और जीतने के बाद इसे लागू भी किया।फिर मध्य प्रदेश में पहले शिवराज सिंह चौहान सरकार पहले मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना, लाडली लक्ष्मी योजना और फिर लाडली बहना योजना लेकर आयी।

महिला स्वयं सहायता समूह के कर्ज माफी और रानी दुर्गावती योजनाओं की घोषणा की गई। छत्तीसगढ़ में महतारी योजना लांच की गई। सरकार बनाने और बिगाड़ने में महिलाओं की भूमिका की पड़ताल का सबसे बड़ा उदाहरण 2023 का मध्य प्रदेश का चुनाव रहा। मध्य प्रदेश में महिलाओं के वोट की गणित को समझना जरूरी है।

आंकड़ों के अनुसार यहां कुल 56136229 वोटर्स हैं। इनमें महिला वोटर्स 27233945 है। शिवराज सरकार का दावा था कि लगभग 1 करोड़ 31 महिलाएं लाडली बहनें योजना में रजिस्ट्रेशन करा चुकी हैं।  चुनाव के पहले इनके खाते में पहले एक हजार और बाद में 1200 प्रति महिना जाने लगा।

देखा जाए तो कुल मतदाताओं में से 22 प्रतिशत के करीब उन महिलाओं के वोट हैं जो लाडली बहना के तौर में लाभार्थियों की फेहरिस्त में शामिल हैं। इसी से प्रभावित होकर कांग्रेस नारी सम्मान योजना लेकर आयी,लेकिन मध्य प्रदेश की महिलाओं ने कागज पर लिखी योजना के बदले खाते में धन दे रही योजना को चुना।

नतीजतन एमपी में दो दशक से पुरानी भाजपा सरकार में एंटी इनकम्बेसी का कोई मायने नहीं रहा। छत्तीसगढ़ में भी भूपेश बघेल लगभग जीती हुई बाजी भाजपा के महिला वोटर्स पर लगाये गये दांव से हार गए। भले ही भाजपा को आय कर दाताओं और मध्य वर्ग की नाराज़गी का सामना करना पड़ा हो लेकिन खाली हाथ रहने वाली महिलाओं के बटुए में हर महीने जाने वाली रकम से आया बदलाव सब पर भारी पड़ा।

शिवराज सिंह चौहान देश के एकलौते सीएम बने जिनको राजनेता से इतर भैया और मामा का खिताब मिला या यूं कहें कि उनकी ऐसी छवि बन गई। ये कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण की अगर सबसे अधिक योजनाएं कहीं हैं तो वह शिवराज का मध्य प्रदेश में है।

कांग्रेस की कर्नाटक की महिला आधारित योजनाओं का लाभ उसे तेलंगाना में तो मिला लेकिन उसकी गूंज राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में नहीं सुनाई पड़ी। यहां तक कि अशोक गहलोत की चिंरजीवी जैसी शानदार योजना भी महिला वोटर्स को प्रभावित नहीं कर सकी। बहरहाल समय बदला तो दस्तूर भी बदल रहा है और महिलाएं खुद अपनी आवाज बन रही हैं। वीरांगना बन कर मुकाबले के लिए तैयार हो रही है।

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