सुधांशु द्विवेदी
देश की प्रतिष्ठा, अस्मिता और राष्ट्रीय स्वाभिमान की दृष्टि से राष्ट्रगान का विशेष महत्व है। राष्ट्रगान ही वह बहुमूल्य प्राणमंत्र है जो विविधता एवं विलक्षणता से परिपूर्ण भारत देश को एकजुट रखने का काम करता है। देश में पिछले कुछ समय से राष्ट्रगान को मजाक का विषय बनाने एवं उसका अपमान करने का जो दौर चल रहा है वह बहुत ही कष्टप्रद है। जम्मू और कश्मीर विधानसभा में विधायकों द्वारा राष्ट्रगान के अपमान का जो मामला उजागर हुआ है, वह साबित करने के लिये काफी है कि अगर राजनेता राष्ट्रीय सरोकारों को अपने अंतःकरण में आत्मसात नहीं कर पाएंगे तो फिर उनकी नेतागिरी व उनके राजनीतिक प्रहसन का कोई औचित्य नहीं है। देश सभी के लिये सर्वाेपरि होना चाहिये तथा राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करना सभी की महती जिम्मेदारी है तथा राष्ट्रगान के अपमान जैसा अपराध तो बिलकुल ही नहीं किया जाना चाहिये। जैसा कि बताया जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में राष्ट्रगान बजने के दौरान भी विधायकों का शोर-शराबा जारी रहा तो यह एक बड़ी विकृति है, जिस पर रोक लगाया जाना जरूरी है, तथा इस मामले के लिये जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई भी होनी चाहिये । जम्मू-कश्मीर विधानसभा में चाहे वह जिस किसी भी पार्टी, जाति या धर्म से वास्ता रखने वाले विधायक हों, उन्हें राष्ट्रगान की महिमा, गरिमा एवं प्रतिष्ठा का ध्यान तो रखना ही चाहिये। क्यों कि राष्ट्रगान का सम्मान करना उनका अधिकार भी है और कर्तव्य भी।
साथ ही विधानसभा तो वह बहुमूल्य सदन है जहां जनता-जनार्दन के भाग्य और भविष्य का निर्धारण होता है। वहां होने वाली चर्चा एवं बहस विधि-विधान का हिस्सा बनती है तथा वहां पारित होने वाले निर्णय जनहितों का आधार बनते हैं। ऐसे में अगर विधानसभा के अंदर राष्ट्रगान बजाया जा रहा था तो फिर विधायकों को दलगत एवं विचारधारागत राजनीति से अलग हटकर राष्ट्रगान का सम्मान तो बरकरार रखना ही चाहिये था। शोर-शराबे में शामिल विधायकगण अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर पाए। जम्मू-कश्मीर सरकार के नकारापन को लेकर अगर विधायकों में नाराजगी है तेा उन्हें अपनी बात सदन में खुलकर रखने का मौका तो मिलना चाहिये क्यों कि विधायक निर्वाचित जन-प्रतिनिधि हैं तथा उन्हें अपनी उपयोगिता एवं प्रासंगिकता साबित करने के लिये सदन में वाकक्षमता एवं मुद्दों से परिपूर्ण तो रहना चाहिये। फिर भी राष्ट्रगान बजते समय शोर-शराबा बंद करके संयम एवं शालीनता का परिचय देना भी उनके लिये जरूरी है। विधायी सदनों के अंदर राष्ट्रगान बजाए जाने के परंपरा वर्षों से है तथा यह परंपरा आगे भी चिरस्थायी व जीवंत बनी रहनी चाहिये। वैसे आजकल देश में राष्ट्रगान और राष्ट्रभक्ति को लेकर राजनीति भी खूब हो रही है। कतिपय राजनीतिक दलों एवं नेताओं द्वारा खुद को देशभक्ति का झंडाबरदार व ठेकेदार बताया जा रहा है लेकिन जब उनके कारनामों पर दृष्टिपात किया जाए तो वह भ्रष्टाचार व अनैतिक कार्यों में आकंठ डूबे नजर आते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रगान को दलगत राजनीति एवं राजनीतिक फायदे का माध्यम बनाने की भी कोशिश की जा रही है। वहीं अभी सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक निर्णय पारित किया गया है कि सभी फिल्म थियेटरों में फिल्म दिखाए जाने से पूर्व राष्ट्रगान बजाया जाना अनिवार्य होगा।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से राष्ट्रगान की सर्वव्यापकता बढ़ाने में अगर मदद मिलेगी तो राष्ट्रगान की कई बार अवमानना होने की भी आशंका बढ़ जाएगी। कई बार ऐसा होता है कि फिल्म थियेटरों में राष्ट्रगान बजता है तो कई लोग अपनी सीट से खड़े ही नहीं होते। लोगों के इस रवैये का कारण यह है कि लोग जरूरत से ज्यादा अहंकारी हो गये हैं। उन्हें राष्ट्रीय कर्तव्य का बोध ही नहीं है तो फिर ऐसे लोगों पर दबाव डालकर उन्हें राष्ट्रीयत्व से परिपूर्ण कैसे बनाया जा सकता है। राष्ट्रगान का सम्मान कायम रखने का भाव तो उनके अंतःकरण से जागृत होना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट का पफैसला आने के बाद अब फिल्म थियेटरों में फिल्में देखने जाने वाले लोग पूरी तरह राष्ट्रगान का सम्मान करेंगे तथा वह राष्ट्रगान बजाए जाते समय पूरी तरह सावधान की मुद्रा में खड़े रहेंगे, इस बात की कौन सी गारंटी है? क्यों कि राष्ट्रगान गाने या राष्ट्रगान बजाए जाते समय पूरे आदर एवं प्रतिबद्धभाव से सावधान की मुद्रा में खड़े रहना कोई हंसी-मजाक का खेल नहीं है। राष्ट्रगान गाने या राष्ट्रगान बजाए जाने की अवधि 52 सेकंड की होती है, बहुत से लोग तो इस बात का भी ध्यान नहीं रख पाते तो फिर सुप्रीम कोर्ट के पफैसले के बाद क्या ऐसे पहलुओं पर भी ध्यान दिया जाएगा, इस विषय पर भी विचार किया जाना चाहिये।
यहां सवाल यह भी उठता है कि आज के दौर में फिल्म थियेटरों में कोई चरित्र प्रधान या सामाजिक क्रांति वाली फिल्में तो दिखाई नहीं जातीं। साथ ही फिल्म देखने जाने वाले लोगों की मनोदशा व मानसिकता अलग-अगल होती है, इस बात का ध्यान भी तो रखा जाना चाहिये। फिल्में समाज में किस हद तक चारित्रक दुर्बलता पफैला रही हैं तथा नैतिक मूल्यों का सत्यानाश कर रही हैं, यह बात तो विशेषज्ञ भी बखूबी जानते हैं फिर राष्ट्रगान बजाए जाने से फिल्म थियेटरों देशभक्तों की तपोभूमि में कैसे तब्दील किया जा सकता है? यहां यह सब उदाहरण देने और बातें लिखने का आशय यह है कि राष्ट्रगान का सम्मान बरकरार रखना सभी पक्षों की जिम्मेदारी है तथा राष्ट्रगान को मजाक बिल्कुल ही नहीं बनाया जाना चाहिये। चाहे कोई विधानसभा हो, संसद हो या फिर फिल्म थियेटर या कोई अन्य वांक्षित स्थल, राष्ट्रगान का अपमान तो कहीं भी नहीं होना चाहिये तथा राष्ट्रगान गाने या बजाए जाने को रस्म अदायगी बिल्कुल ही नहीं माना जाना चाहिये।