सम्पूर्ण देश ही अपना है, यहां कोई आगे नहीं और कोई पीछे नहीं है। देश का कोई भी कोना हो, उसका अपना महत्व और अपनी विशेषता है। एक समय था कि देश-विदेश में यह कहा जाता था कि मुंबई तो माँ का पेट है, यहां रहने वाला भूखा उठ सकता है, लेकिन भूखा सोता नहीं। देश की इस आर्थिक राजधानी का अपना एक रुतबा था। उद्योगों के साथ-साथ फिल्म नगरी होने के कारण इस नगर की जाहोजलाली थी, लेकिन आमची मुंबई इन दिनों सरकारी नीतियों के कारण इतनी लाचार हो गई है कि अब दुनिया के नगरों में मुंबई का ग्राफ तेजी से गिरता हुआ दिखलाई पड़ता है। इसमें दो राय नहीं कि मुंबई बंदरगाह होने के कारण सत्ताध्ीश हों अथवा तो कारोबारी दुनिया के लोग मुंबई में आकर कारोबार करने को महत्व दिया करते थे, लेकिन समय के साथ वैज्ञानिक बदलाव के कारण यहां केवल जो उद्योग और अन्य कारोबार केन्द्रित थे, वे अन्यत्र स्थानान्तरित होने लगे। ब्रिटिश युग में भी देश की राजधानी दिल्ली ही थी, किन्तु ब्रिटिश सत्ताधीश और अन्य विदेशी अतिथियों का आवागमन मुंबई मार्ग से ही होता था।
यातायात के साधन न तो इतने विकसित हुए थे और न ही सामान्य जनता की देश-विदेश में अन्यत्र स्थानों पर आने जाने की भागीदारी थी, इसलिए देश के अन्य नगरों के स्थान पर मुंबई का स्थान जलवायु के साथ आवश्यकतानुसार अधिक था। मुंबई की अनोखी जलवायु के कारण कपड़ा मिलें यहां का धड़कता दिल थी, लेकिन समय के साथ तकनीक में इतना बदलाव आया कि उसने विशेष प्रकार की मानसूनी जलवायु से भी टक्कर ली। इसलिए जो विशेष प्रकार की जलवायु समुद्र तट के कारण थी, वह भी वैज्ञानिक कारणों से अन्यत्र भी उपलब्ध होने लगी। परिणाम स्वरूप मुंबई का यह विशेष दर्जा भी समाप्त होता चला गया। ज्यों-ज्यों समय निकलता गया, स्थिति बदलती गई और अन्य नगर इस स्पर्धा में जलवायु की चिंता किए बिना आगे बढने लगे। कल तक जिस लंदन का दुनिया में दबदबा था, क्या आज वैसा शेष है? इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा।
लोकतंत्र में जब भारत सांस लेने लगा तो मुंबई चूंकि देश की आर्थिक राजधानी युगों से थी, उसके प्राप्त साधनों का विकेन्द्रीकरण होना स्वाभाविक था। आज तो सारी दुनिया एक मुट्टठी में एक नगर के समान है, इसलिए लंदन, पेरिस और वाशिंगटन की तरह मुंबई की स्थिति भी दोयम दर्जे की हो गई। आजादी के पश्चात इस औद्योगिक नगर को सबसे अध्कि चोट मजदूर युनियनों ने पहुंचाई। मुंबईया भली प्रकार जानते हैं कि दत्ता सामंत, जाॅर्ज फर्नांडिस एवं डांगे जैसे मजदूर नेताओं ने यहां मजदूरों को न्याय दिलाने के नाम पर इस नगर की कमर तोड़ दी। विभाजन की दुखद घडियों में भी कामकाज करने वालों का जिस तेजी से स्थानान्तरण नहीं हुआ। उतना उद्योगों के स्थानान्तरित होने के कारण जिन में विशेषतयः यहां की कपड़ा मिलों में चली लंबी हड़ताल ने इस नगर की कमर तोड़ दी। जो मुंबई अपनी सांस्कृतिक एकता के लिए प्रख्यात थी, वह अस्त-व्यस्त हो गई। महाराष्ट्र, गुजरात के विभाजन के समय यहां से पूंजी निवेश का भी पलायन हुआ। आजादी के बाद मुंबई का जो विशेष रुतबा था, वह भी समाप्त हो गया। प्रारंभ के दिनों में मोरारजी देसाई डांगे, यशवंतराव चव्हाण जैसे अनेक योग्य नेताओं ने इस नगर का नेतृत्व किया, लेकिन उस में कोई विशेष सफलता नहीं मिली। गुजरात और महाराष्ट्र तो बनना ही था, लेकिन समय के साथ अनेक ऐसी घटनाएं भी घटित होती चली गई, जिससे पूंजी का पलायन होता रहा। निरंतर कपड़ा मिल की हड़तालों ने इस नगर की आर्थिक कमर तोड़ दी। लालबाग और परेल की कपड़ा मिलों के भोगों की आवाज बंद हो गई।
तीनों ओर समद्र से घिरा होना जहां उसकी विशेषता थी, तो वहीं यातायात के साधन और जमीन की कमी भी मुंबई के विकास में आड़े आते रही। उन दिनों तो 25-50 माला की इमारतें बनने की तकनीक विकसित नहीं हुई थी। कपड़ा मिलों को जो विशेष प्रकार की जलवायु अनिवार्य थी, वह भी नई शोध के कारण समाप्त हो गई। इस कारण मुंबई की ताकत धीरे-धीरे धराशायी होने लगी। यातायात और संचार की सुविधाओं के कारण जब सम्पूर्ण विश्व ही एक नगर बन गया तो फिर मुंबई की औकात क्या रह जाने वाली थी? इतिहास में अनेक नगरों के बसने और उजडने के किस्से हम पढ़ते रहे हैं, लेकिन मुंबई के लिए ऐसा कहना किसी का साहस नहीं हो सकता? यदि ऐसा होता तो बालीवुड की आवाज यह है मुंबई मेरी जान कभी बुलंद नहीं होती। समय की परछाइंया सरकती रहती है, जिसमें आज भी कोई दीवाना मस्ती से गाता हुआ मिल जाता है, ये है मुंबई मेरी जान… मस्ती भरा तराना कानों में सुनाई पड़ने लगता है… मैं मुंबई का बाबू… आॅक्सफोर्ड इकोनाॅमिक्स द्वारा हाल ही में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार मुंबईकरों के लिए यह समाचार निराशाजनक है कि 2015 में दुनियाभर के टाप आर्थिक महानगरों में मुंबई का स्थान 31वें नंबर पर पहुंच गया। देखा जाए तो मुंबईकरों के लिए ही नहीं सारे देश को उत्तफ समाचार देहला देने वाला है। इस घोषणा के साथ ही मुंबई ने अपने आर्थिक राजधानी का दर्जा दिल्ली के हाथों गंवा दिया है। पाठक इस बात को भली प्रकार से जानते हैं कि आॅक्सफोर्ड इकोनाॅमिक्स दुनिया की जानीमानी स्वतंत्र एडवाइजरी फर्म है, जो दुनिया भर के 200 देशों, 100 इंडस्ट्रीज सेक्टर्स और 300 नगरों का एनालीटिकल टूल्सफोरकोस्ट और रिपोट्र्स प्रकाशित करती है।
इसके हाल ही में प्रकाशित हुए विश्लेषण के अनुसार पर्चेजिंग पावर खरीद शत्तिफ पेरेटी के मामले में मुंबई और उसकी विस्तारित नवी मुंबई, ठाणे, वसाई विरार, भिवंडी और पनवेल की 2015 में जीडीपी 368 मीलियन डाॅलर की थी। यह स्थिति 2012 की खरीद शत्तिफ के मुकाबले है। वहां दिल्ली की बात करें तो उसकी अपने विस्तारित क्षेत्रों दिल्ली एनसीआर, गुड़गांव, फरीदाबाद, नोएडा और गाजियाबाद की पीपीपी जीडीपी 25.164 अरब रुपए है जो इसे मुंबई से एक पायदान ऊपर यानी 30वें नंबर पर रखती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस बात की कम संभावना है कि भविष्य में मुंबई आगे निकल सकेगी। परामर्शदाता एजेंसी ने यह भी भविष्यवाणी की है कि 2030 तक यह दोनों नगर सूची में ऊपर चढ़ेंगे और जहां दिल्ली 11वें नंबर पर पहुंच जाएगा, वहीं मुंबई 14वें स्थान पर अपना स्थान बना लेगा। इसके पश्चात् यह दोनों नगर दुनिया के बड़े आर्थिक केन्द्र बन जाएंगे। यद्यपि दिल्ली की तुलना में मुंबई की पर केपीटा आय अध्कि है। क्योंकि आबादी के मामले में वह दिल्ली से पीछे है। विश्लेषण के अनुसार मुंबई की पर केपीटा इनकम जहां 16,881 डाॅलर है, वहीं दिल्ली की 15,745 डाॅलर है।